शनिवार, 26 मई 2012

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सौभाग्यशाली गुरूमुखों- सप्रेम जयसच्चिदानंद।
आज मैं अपना कर्तव्य जानएक अत्यंत 
महत्वपूर्ण विषय
(श्री दरबार में प्रशाद वितरण के समय 
बड़ती अव्यवस्था) पर बंधुजनों से
चर्चा करने जा रहा हूं। इसमें कोई संदेह
 नहीं कि हमारा दरबार भक्ति-
प्रमार्थ का श्रेष्ठ-सच्चा दरबार है। 
परंतु साधारण व्यक्ति के पास
प्रमार्थ को देखनें वाली दृष्टि नहीं होती, 
वह तो बाहरी व्यवहार को ही देखता है।
       
 प्रशाद वितरण के समय बड़ती 
अव्यवस्था श्री दरबार की शान के
अनुरूप नहीं है। मेरा ये विन्रम निवेदन
 है कि प्रशाद वितरण के समय
अनुशासन- संयम में रहें। केवल 
संतो-महात्माओं का ही नहीं वरन् प्रत्येक
गुरूमुख का कर्तव्य है कि अपने- अपने 
वर्तुल में ऐसी वैचारिक क्रांति
फैलाएं कि वास्तनविक प्रशाद तो
 दयासागर श्री सद्गुरूदेवमहाराज जी की
प्रसन्नता ही है। शिक्षित बंधुओं से विशेष 
आशा करता हूं कि वे अपने
सम्पर्क वर्तुल में ऐसा दिव्य माहौल
 बनाऐंगे कि नवीन भक्त जब प्रथम
बार श्री दशनों को हमारे साथ जाएं
 तो उनके मुख से अनायास धन्य-धन्य 
के बोल सुनाई पड़ें।

         कहते हैं कि तीर्थ पर किये
 गए पाप- पुण्य दोनों ही का फल अनंत
गुणा मिलता है तो हमें पुण्य एकत्र करके
 भक्तिधन को ही पाना चाहिये यही
हमारे महापंभु जी की मौज है। श्री दरबार 
में हम सादे वस्त्र धारण करें
और वहां हमारा एक-एक पल अध्यात्मिक 
प्रगति हेतु नियाजित होना चाहिये। एक
और बिंदु पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा 
कि जैसे भौतिक धन बड़ने पर चोर-
डाकुओं से सर्तक रहना पड़ता है ऐसे ही 
भक्तिधन प्राप्त होने पर काम-
क्रोधदि डाकुओं से सदा सावधान रहना 
चाहिये। मेरे एक मित्र कहते हैं- ‘
‘कि मछली एक- शिकारी अनेक’’। 
काम से बचा तो कोध्र में फसेंगा उससे 
भी बच गया तो अंहकार तो दबोच ही लेता 
है। मैं भी अनेक बार लुट चुका हूं, परंतु
महाप्रभु की कृपा ही बार-बार सम्भाल
 लेती है।
कोमल चित अति दीनदयाला- 
कारण बिन रघुनाथ कृपाला।
जब वो हम पर इतने दयाल हैं 
फिर हमारा भी तो कुछ उत्तपरदायित्व 
बनता है कि हमारे कर्म दरबार की 
ऊंची-सुच्ची शान के अनुरूप ही हों।
तो आज अभी से हम संकल्प करें
 कि चाहे कुछ भी हो जाये प्रशाद के 
समय खड़ा नहीं होना और भक्तिधन 
से मालोंमाल होकर महाप्रभुजी की 
प्रसन्नता प्राप्त करनी है।

बंधुओं मैं तो स्वंयं ही अवगुणों की
 खान हूं अगर मेरी बातें अच्छी न लगी
हों तो क्षमा चाहता हूं। 
 =Ξ☆जयसच्चिदानंद दयालु जी☆Ξ=

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